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29 September 2021

ख्याल....

ख्याल भी ऐसे ही होते हैं
जज़्बात भी ऐसे ही होते हैं
आसमान में उड़ते
जहाज़ की तरह
कभी नापते हैं
सोच, ख्यालों और
उद्गारों की
अनंत ऊंचाई को
और कभी
धीरे-धीरे
अपनी सतह पर
वापस आकर
तैयार होने लगते हैं
फिर एक
नई मंजिल की ओर
एक नई परवाज के लिए।
यह चक्र
असीम है
देश,काल
और वातावरण के
बंधनों से मुक्त
हमारे विचार
यूं ही
तैरते-तैरते
या तो तर जाते हैं
या भटकते ही रह जाते हैं
क्षितिज की
परिधि में ही कहीं।

यशवन्त माथुर©
29092021


22 September 2021

साधारण ही हूँ

हाँ 
साधारण ही हूँ 
यह जानकर 
और मान कर भी 
कि मेरे सम वयस्क 
हर एक मायने में 
निकल चुके हैं 
मुझसे कहीं आगे 
और मैं 
अब भी 
वहीं खड़ा हूँ 
अपने सीमित शब्दकोश की 
असीमित देहरी के भीतर 
जहां 
कल्पना का खाद-पानी पा कर
अंकुरित होती बातें 
अविकसित या 
अल्पविकसित ही रह कर 
पूर्ण हो ही नहीं पातीं 
क्योंकि मैं जानता हूँ 
अपने शाब्दिक कुपोषण का कारण 
क्योंकि मैं जानता हूँ 
मैं हूँ ही साधारण 
फिर भी नहीं छोड़ पाता मोह 
खुद से खुद के मन की कहने का 
धारा के विपरीत 
कुछ तो बहने का। 

-यशवन्त माथुर©
14072021

09 September 2021

ताला और जिंदगी

एक समय के बाद
जिन्दगी
हो जाती है
जंग लगे
ताले की तरह
जिसके खुलने से
कहीं ज्यादा
मुश्किल होता है
उसे

दोबारा
पहले जैसा
बंद करना।
ठीक ऐसे ही
वक्त की कब्र में
भीतर तक दबे राज़
खुद खुद कर
जब आने लगते हैं सामने
तब नामुमकिन ही होता है
उसे पहले की तरह
पाटना और समतल करना
क्योंकि
बदलाव के नए दस्तूर
और ऊबड़ खाबड़ पाखंड
मिलने नहीं देते
श्वासों के चुनिंदा
अवशेषों को
स्मृतियों की
दो गज जमीन।

-यशवन्त माथुर©
29082021

04 September 2021

इश्तहार हूं....

खुली पलकों के सामने से
गुजर जाया करता हूं
समय के पन्नों से
पलट जाया करता हूं
बावजूद इसके
कि लिखा जाता हूं
अमिट स्याही से
याद रहता हूं कभी
और अक्सर
भुला दिया जाता हूं।
यूं तो
रंगीन तस्वीरें कई हैं
मेरे भीतर
और ढेरों शब्दों का
हमसफर बनकर
पड़ जाता हूं
किसी कोने में
धूल फांकने को..
या कि किसी ढेर में
जला दिया जाता हूं।
मैं इश्तहार हूं!
जज़्बात मुझमें कहीं भी नहीं
हूं इश्क ऐसा कि
दिलों तक
पहुंच ही जाता हूं।

-यशवन्त माथुर©
04092021
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