भक्त कौन?
वो जो रोज
तुम्हारे दर पे आकर
मस्तक झुकाता है
बंद करता है पलकें
और कुछ बुदबुदाता है
शायद मांगता है
इच्छापूर्ति का वरदान
और बदले में
प्रस्तावित करता है
कुछ अर्पण
कुछ मिष्ठान पकवान।
या
भक्त वो
जो कभी झांकता भी नहीं
तुम्हारे तथाकथित घर के भीतर
क्योंकि उसे लगता है
तुम कहीं 'भीतर' नहीं
प्रत्यक्ष, सर्वत्र, सार्वभौमिक हो
सबकी इच्छा-अनिच्छा समझकर
परीक्षा लेते हो
राह दिखाते हो।
भक्त
दोनों में से
कोई भी हो
उसकी भक्ति के
उत्थान पतन चरम
और अंतर्मन की
एक एक धारा
पहचानते ही हो
क्योंकि
तुम्हारा नाम
कुछ भी हो
लेकिन
तुम जो हो
वो हो।
-यशवन्त माथुर©
0910201
इस कविता के मर्म को आत्मसात् कर लेना ही सभी के लिए उचित है।
ReplyDeleteवाह! जो भी भला बुरा है वह हर बात जानता है, तभी तो वह जानी जान है, सुंदर रचना!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति
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