तसला भर सपनों को
रोज़ सर पे ढोता है
ऐसे ही नहीं
कोई मजदूर होता है।
झोला भर जिंदगी उससे
क्या कुछ नहीं कराती
परदेसियों की बातें
क्या-कुछ नहीं दिखातीं।
दूसरों के मखमल सजा कर
खुद ज़मीन पे सोता है
ऐसे ही नहीं
कोई मजदूर होता है।
हर शाम बातें करता है
सिरहाने की ईंट से
मौत रेंगकर निकलती है
अक्सर उसके करीब से।
ख्यालों की पाड़ लगाकर
हर महल से ऊंचा होता है
ऐसे ही नहीं
कोई मजदूर होता है।
26112021
.
सुन्दर रचना
ReplyDeleteएक मज़दूर की दिल को छू लेने वाली कथा-व्यथा !
ReplyDeleteसच कहा यशवन्त जी आपने।
ReplyDelete