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26 November 2021

ऐसे ही नहीं कोई मजदूर होता है

तसला भर सपनों को
रोज़ सर पे ढोता है
ऐसे ही नहीं
कोई मजदूर होता है।
 
झोला भर जिंदगी उससे
क्या कुछ नहीं कराती
परदेसियों की बातें
क्या-कुछ नहीं दिखातीं।
 
दूसरों के मखमल सजा कर
खुद ज़मीन पे सोता है
ऐसे ही नहीं 
कोई मजदूर होता है।
 
हर शाम बातें करता है
सिरहाने की ईंट से
मौत रेंगकर निकलती है
अक्सर उसके करीब से।

ख्यालों की पाड़ लगाकर
हर महल से ऊंचा होता है
ऐसे ही नहीं
कोई मजदूर होता है।

-यशवन्त माथुर©
26112021
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3 comments:

  1. सुन्दर रचना

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  2. एक मज़दूर की दिल को छू लेने वाली कथा-व्यथा !

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  3. सच कहा यशवन्त जी आपने।

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