गहराती रात के साथ
शब्द भी खो जाते हैं
कहीं गहरी नींद में
अक्षर भी सो जाते हैं ...
जो दिन में
मन के कहीं भीतर उभर कर
सफर तय करते हैं
होठों से उंगलियों में जकड़ी
कलम तक का
लेकिन शाम होते होते
कागज की देहरी पर
विस्मृत हो जाते हैं..
विलुप्त हो जाते हैं..
क्योंकि अंधेरे की आहट पाकर
अवचेतन ओढ़ लेता है
आलस्य की लंबी चादर
और फिर
अर्द्ध मूर्च्छा में
रह जाता है
इंतजार
सिर्फ उस सुबह का
जिसमें
गर कुछ लिखा न जा सका
तो फिर से चलने लगता है
कटु सत्य की धुरी पर
समय का वही चक्र।
-यशवन्त माथुर©
24112021
सुन्दर सृजन
ReplyDeleteअपने ही मन की प्रतिध्वनि प्रतीत हो रहे हैं ये शब्द।
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 26.11.2021 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4260 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
वाक़ई, सुबह सुबह लिखना सरल होता है, दिन भर की आपाधापी में शाम होते-होते मन की सहज मुखरता कहीं खो जाती है
ReplyDeleteक्योंकि अंधेरे की आहट पाकर
ReplyDeleteअवचेतन ओढ़ लेता है
आलस्य की लंबी चादर
और फिर
अर्द्ध मूर्च्छा में
रह जाता है
इंतजार।
सच कहा आपने ।
एहसासों का अप्रतिम सृजन।