शिक्षा मनुष्य की नैसर्गिक और सार्वभौमिक आवश्यकता है। अपने जन्म से मृत्यु पर्यन्त हम किसी न किसी रूप में कुछ न कुछ सीखते ही रहते हैं। चाहे वह माता-पिता की गोद में सभ्यता के स्वाभाविक पाठ सीखना हो या परिवार और मित्रों के परिवेश में ढलना। जो कुछ भी हम सीखते हैं वह शिक्षा ही है। लेकिन क्या सभ्यता और सामाजिक परिवेश के पाठ सीखना ही शिक्षा है? क्या यही शिक्षा की उपयोगिता है? आपका जवाब हां या न कुछ भी हो लेकिन शिक्षा को किसी भी सीमा में बांधा नहीं जा सकता।
वर्तमान में शिक्षा का उद्देश्य या कहें कि उपयोगिता सिर्फ धनार्जन के एकमात्र लक्ष्य की पूर्ति करना ही रह गया है।और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए शिक्षार्थी पर परिवार और समाज का भरपूर दबाव रहता है, चाहे उसकी पृष्ठभूमि कैसी भी हो। कुछ इस दबाव को झेल लेते हैं और आगे बढ़ जाते हैं वहीं कुछ ऐसे भी होते हैं जो इस कदर दब जाते हैं कि फिर कभी उठ ही नहीं पाते। और जो उठ नहीं पाते, जो धनार्जन की प्रतियोगिता में पिछड़ जाते हैं, वे अंततः अकेले ही रह जाते हैं। परिवार और समाज का असहयोगात्मक रवैया उन्हें एकाएक मानसिक तनाव की ओर धकेल देता है जिसकी परिणति किसी भी दशा में सकारात्मक तो हो ही नहीं सकती।
तो ऐसे में कोई क्या करे? क्या धनार्जन न करे? क्या सामाजिक और पारिवारिक शिष्टाचार सीख कर कोई अपना निर्वाह कर सकता है? उत्तर सिर्फ एक ही है- संतुलन। क्योंकि असंतुलन का ही हास्यास्पद परिणाम तब देखने को मिलता है जब अच्छे खासे उपाधिधारक विद्वतजन भी अनपढ़ों के चक्रव्यूह में फंसकर उससे पार पाने को छटपटाते नजर आते हैं। इसलिए संतुलन के साथ ही शिक्षा के मूलभूत उद्देश्य और इसकी उपयोगिता को सार्थक बनाया जा सकता है।
[फ़ेसबुक ग्रुप भाव कलश पर 'शिक्षा की उपयोगिता' विषय पर आधारित चर्चा के लिए लिखा गया]
17122021
पूर्ण सहमति व्यक्त करता हूँ आपके विचारों से।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और सारगर्भित आलेख।
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