(1)
हर रात
रोशनी के नशे में डूबकर
कंक्रीट की सभ्यता
करती है गुफ्तगू
मखमली पर्दों के बाहर पसरे
सन्नाटे के साथ
खोलती है
अपने भीतर की दुनिया की
कुछ अनकही-
अनदेखी परतें
जिनके ऊपर के मुखौटे
जब मुखातिब होते हैं
दिन के उजाले में
तो ऐसा लगता है
जैसे किसी ऊंचे पेड़ की
हरभरी पत्तियां
शायद अब तक अनजान हैं
सूखती जड़ों
और तने के
खोखलेपन से।
(2)
कंक्रीट की सभ्यता!
हाँ! यह वह सभ्यता नहीं
जो अगर कभी दफन हुई
और अगर कभी
हमारा आधुनिक वर्तमान
प्राचीन हुआ
तो शायद ही
भविष्य को मिल सकेंगे
विध्वंस के अवशेष
क्योंकि हमने
समय से पहले ही
समय को निचोड़ कर
अपने अमरत्व से
छीन लिया है
भावी
जीवाश्मों का
पुनर्जीवन।
.
चित्र व शब्द:
यशवन्त माथुर©
18122021
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यह एक दुखद यथार्थ है यशवंत जी।
ReplyDeleteबेहतरीन सृजन
ReplyDeleteबहुत सटीक एवं सारगर्भित...
ReplyDeleteलाजवाब सृजन
वाह!!!