कुछ लोग
लगते हैं
देखने से भले
व्यवहार से
हितैषी
लेकिन उनके भीतर
पलता रहता है
विद्वेष
जिसकी झलक
कभी न कभी
दिखती है
उनकी कथनी-
करनी के अंतर
और उनके चेहरे पर
उभर कर मिटती
आड़ी-तिरछी लकीरों के
आवागमन से।
यूं तो
विद्वेष
होता है
स्वाभाविक भी
फिर भी
कुछ लोग
अधिकतर नहीं होते संतुष्ट
अपने
और किसी और के
सुख-दु: ख की
चारित्रिक
असंगतता से।
08122021
आप ठीक कह रहे हैं यशवंत जी।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteयथार्थपरक रचना.
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