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19 December 2021

कंक्रीट की सभ्यता

(1)
हर रात
रोशनी के नशे में डूबकर
कंक्रीट की सभ्यता
करती है गुफ्तगू
मखमली पर्दों के बाहर पसरे
सन्नाटे के साथ
खोलती है
अपने भीतर की दुनिया की
कुछ अनकही-
अनदेखी परतें
जिनके ऊपर के मुखौटे
जब मुखातिब होते हैं
दिन के उजाले में
तो ऐसा लगता है
जैसे किसी ऊंचे पेड़ की
हरभरी पत्तियां
शायद अब तक अनजान हैं
सूखती जड़ों
और तने के
खोखलेपन से।

(2)
कंक्रीट की सभ्यता!
हाँ! यह वह सभ्यता नहीं
जो अगर कभी दफन हुई
और अगर कभी
हमारा आधुनिक वर्तमान
प्राचीन हुआ
तो शायद ही 
भविष्य को मिल सकेंगे
विध्वंस के अवशेष
क्योंकि हमने
समय से पहले ही
समय को निचोड़ कर
अपने अमरत्व से
छीन लिया है
भावी 
जीवाश्मों का 
पुनर्जीवन।
.
चित्र व शब्द: 
यशवन्त माथुर©
18122021
.

17 December 2021

वर्तमान समय में शिक्षा की उपयोगिता


शिक्षा मनुष्य की नैसर्गिक और सार्वभौमिक आवश्यकता है। अपने जन्म से मृत्यु पर्यन्त हम किसी न किसी रूप में कुछ न कुछ सीखते ही रहते हैं। चाहे वह माता-पिता की गोद में सभ्यता के स्वाभाविक पाठ सीखना हो या परिवार और मित्रों के परिवेश में ढलना। जो कुछ भी हम सीखते हैं वह शिक्षा ही है। लेकिन क्या सभ्यता और सामाजिक परिवेश के पाठ सीखना ही शिक्षा है? क्या यही शिक्षा की उपयोगिता है? आपका जवाब हां या न कुछ भी हो लेकिन शिक्षा को किसी भी सीमा में बांधा नहीं जा सकता।

 वर्तमान में शिक्षा का उद्देश्य या कहें कि उपयोगिता सिर्फ धनार्जन के एकमात्र लक्ष्य की पूर्ति करना ही रह गया है।और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए शिक्षार्थी पर परिवार और समाज का भरपूर दबाव रहता है, चाहे उसकी पृष्ठभूमि कैसी भी हो। कुछ इस दबाव को झेल लेते हैं और आगे बढ़ जाते हैं वहीं कुछ ऐसे भी होते हैं जो इस कदर दब जाते हैं कि फिर कभी उठ ही नहीं पाते। और जो उठ नहीं पाते, जो धनार्जन की प्रतियोगिता में पिछड़ जाते हैं, वे अंततः अकेले ही रह जाते हैं। परिवार और समाज का असहयोगात्मक रवैया उन्हें एकाएक मानसिक तनाव की ओर धकेल देता है जिसकी परिणति किसी भी दशा में सकारात्मक तो हो ही नहीं सकती।

तो ऐसे में कोई क्या करे? क्या धनार्जन न करे? क्या सामाजिक और पारिवारिक शिष्टाचार सीख कर कोई अपना निर्वाह कर सकता है? उत्तर सिर्फ एक ही है- संतुलन। क्योंकि असंतुलन का ही हास्यास्पद परिणाम तब देखने को मिलता है जब अच्छे खासे उपाधिधारक विद्वतजन भी अनपढ़ों के चक्रव्यूह में फंसकर उससे पार पाने को छटपटाते नजर आते हैं। इसलिए संतुलन के साथ ही शिक्षा के मूलभूत उद्देश्य और इसकी उपयोगिता को सार्थक बनाया जा सकता है।

[फ़ेसबुक ग्रुप भाव कलश पर 'शिक्षा की उपयोगिता' विषय पर आधारित चर्चा के लिए लिखा गया]

-यशवन्त माथुर©
17122021 

08 December 2021

कुछ लोग-55

कुछ लोग
लगते हैं
देखने से भले
व्यवहार से
हितैषी
लेकिन उनके भीतर
पलता रहता है
विद्वेष
जिसकी झलक
कभी न कभी
दिखती है
उनकी कथनी- 
करनी के अंतर
और उनके चेहरे पर
उभर कर मिटती
आड़ी-तिरछी लकीरों के
आवागमन से। 
यूं तो
विद्वेष
होता है
स्वाभाविक भी
फिर भी
कुछ लोग
अधिकतर नहीं होते संतुष्ट
अपने 
और किसी और के
सुख-दु: ख की
चारित्रिक 
असंगतता से।

-यशवन्त माथुर©
08122021

26 November 2021

ऐसे ही नहीं कोई मजदूर होता है

तसला भर सपनों को
रोज़ सर पे ढोता है
ऐसे ही नहीं
कोई मजदूर होता है।
 
झोला भर जिंदगी उससे
क्या कुछ नहीं कराती
परदेसियों की बातें
क्या-कुछ नहीं दिखातीं।
 
दूसरों के मखमल सजा कर
खुद ज़मीन पे सोता है
ऐसे ही नहीं 
कोई मजदूर होता है।
 
हर शाम बातें करता है
सिरहाने की ईंट से
मौत रेंगकर निकलती है
अक्सर उसके करीब से।

ख्यालों की पाड़ लगाकर
हर महल से ऊंचा होता है
ऐसे ही नहीं
कोई मजदूर होता है।

-यशवन्त माथुर©
26112021
.

25 November 2021

गर कुछ लिखा न जा सका....

गहराती रात के साथ
शब्द भी खो जाते हैं
कहीं गहरी नींद में
अक्षर भी सो जाते हैं ...
जो दिन में
मन के कहीं भीतर उभर कर
सफर तय करते हैं
होठों से उंगलियों में जकड़ी
कलम तक का
लेकिन शाम होते होते
कागज की देहरी पर
विस्मृत हो जाते हैं..
विलुप्त हो जाते हैं..
क्योंकि अंधेरे की आहट पाकर
अवचेतन ओढ़ लेता है
आलस्य की लंबी चादर
और फिर
अर्द्ध मूर्च्छा में
रह जाता है
इंतजार
सिर्फ उस सुबह का
जिसमें
गर कुछ लिखा न जा सका
तो फिर से चलने लगता है
कटु सत्य की धुरी पर
समय का वही चक्र।

-यशवन्त माथुर©

24112021

22 November 2021

सफर अभी जारी है...

अंतहीन राहों से
गुजरते हुए
कुछ गिरते हुए
कुछ संभलते हुए
सफर अभी जारी है।
 
समय चक्र में मिलते हैं
कुछ फूल भी
काँटे भी
होती हैं पत्थरों से
दिल की कुछ बातें भी।
 
इस बिसात पर
वजूद को तलाशते हुए
कभी शह,
कभी मात खाते हुए
सफर अभी जारी है।

अक्सर निहारता हूं
कंक्रीट की इमारतों के शिखर से
उगता हुआ सूरज..
फिर शाम की उदासी में
कहीं ढलता हुआ सूरज..
यूं करने को कुछ है तो नहीं
फिर भी लगता कि कुछ
अभी बाकी है
सफर अभी जारी है।

-यशवन्त माथुर©

07 November 2021

अभी बाकी है....

ढल गया एक दिन ऐसे ही, तो क्या हुआ,
फिर एक रोशन दिन की, उम्मीद अभी बाकी है।

उदासियों के बादल भी छंट कर बरसेंगे कभी तो,
सोंधी खुशबू मिट्टी की, उठनी अभी बाकी है।

ख्यालों का क्या है, आते जाते ही रहते  हैं,
गर ठहरे शब्द, तो पन्नों पर, उतरना अभी बाकी है।
.
-यशवन्त माथुर©
06112021

04 November 2021

दीप जलते रहें....


मन मिलते रहें,
चेहरे खिलते रहें,
दीप जलते रहें।
 
प्रवास से लौटकर,
विचार के प्रवाह में,
दिशाएं भी कुछ कहें,
दीप जलते रहें।
 
क्रांति के मार्ग पर,
शांति के गीतों में,
एक होके सब बहें,
दीप जलते रहें।
 
उदय की कथा तो हो,
अस्त की व्यथा न हो,
शामें जब ढलती रहें,
दीप जलते रहें।​

-यशवन्त माथुर©
31102021

31 October 2021

बैलेट सबक सिखाएगा

पेट्रोल महंगा, डीजल महंगा
और महंगी है गैस।
कर्जा लेकर अमीर भागता
जनता भरती टैक्स।
 
जनता भरती टैक्स
सुनो सरकार बहादर
देश चलाते हो तुम
हिंदू-मुस्लिम कराकर।
 
अब भी वक्त है, संभलो! वरना
जब इलेक्शन आएगा
लाख चलाना बुलेट
तुमको बैलेट सबक सिखाएगा।

-यशवन्त माथुर©
21082021

18 October 2021

कोई अपना नहीं......

कोई अपना नहीं सब पराए से हैं।
अपनी खुशियों में भरमाए से हैं।
जब वक्त था कुछ करने का, मुकर गए।
अब न जाने क्यों कुलबुलाए से हैं।
उनकी खूबियों को बाखूबी जान लिया था हमने।
याद पीछे की दिलाई तो अब शरमाए से हैं।
चाहते हैं जानना कि पता, अपना हम बता दें उनको।
लेकिन लगता नहीं कि करनी पर पछताए से हैं।
 
-यशवन्त माथुर©

18102021


16 October 2021

अक्स देखता हूं....

एक अक्स देखता हूं
बादलों में कहीं
गुमनाम हो चुका
एक शख्स देखता हूं
डूबते सूरज के साथ
आसमां में खोते हुए
सुबह फिर मिलेंगे
कहते हुए
यह उसका भरोसा है
और मेरे अंदर का डर
बनते अंधेरे में उसको
सवेरा सोचता हूं..
बादलों में कहीं
एक अक्स देखता हूं।

-यशवन्त माथुर©
16102021

09 October 2021

भक्त कौन?

भक्त कौन?
वो जो रोज
तुम्हारे दर पे आकर
मस्तक झुकाता है
बंद करता है पलकें
और कुछ बुदबुदाता है
शायद मांगता है
इच्छापूर्ति का वरदान
और बदले में
प्रस्तावित करता है
कुछ अर्पण
कुछ मिष्ठान पकवान।
या 
भक्त वो
जो कभी झांकता भी नहीं
तुम्हारे तथाकथित घर के भीतर
क्योंकि उसे लगता है
तुम कहीं 'भीतर' नहीं
प्रत्यक्ष, सर्वत्र, सार्वभौमिक हो
सबकी इच्छा-अनिच्छा समझकर
परीक्षा लेते हो
राह दिखाते हो।
भक्त
दोनों में से 
कोई भी हो
उसकी भक्ति के
उत्थान पतन चरम 
और अंतर्मन की
एक एक धारा
पहचानते ही हो
क्योंकि
तुम्हारा नाम 
कुछ भी हो
लेकिन
तुम जो हो
वो हो।

-यशवन्त माथुर©
0910201

29 September 2021

ख्याल....

ख्याल भी ऐसे ही होते हैं
जज़्बात भी ऐसे ही होते हैं
आसमान में उड़ते
जहाज़ की तरह
कभी नापते हैं
सोच, ख्यालों और
उद्गारों की
अनंत ऊंचाई को
और कभी
धीरे-धीरे
अपनी सतह पर
वापस आकर
तैयार होने लगते हैं
फिर एक
नई मंजिल की ओर
एक नई परवाज के लिए।
यह चक्र
असीम है
देश,काल
और वातावरण के
बंधनों से मुक्त
हमारे विचार
यूं ही
तैरते-तैरते
या तो तर जाते हैं
या भटकते ही रह जाते हैं
क्षितिज की
परिधि में ही कहीं।

यशवन्त माथुर©
29092021


22 September 2021

साधारण ही हूँ

हाँ 
साधारण ही हूँ 
यह जानकर 
और मान कर भी 
कि मेरे सम वयस्क 
हर एक मायने में 
निकल चुके हैं 
मुझसे कहीं आगे 
और मैं 
अब भी 
वहीं खड़ा हूँ 
अपने सीमित शब्दकोश की 
असीमित देहरी के भीतर 
जहां 
कल्पना का खाद-पानी पा कर
अंकुरित होती बातें 
अविकसित या 
अल्पविकसित ही रह कर 
पूर्ण हो ही नहीं पातीं 
क्योंकि मैं जानता हूँ 
अपने शाब्दिक कुपोषण का कारण 
क्योंकि मैं जानता हूँ 
मैं हूँ ही साधारण 
फिर भी नहीं छोड़ पाता मोह 
खुद से खुद के मन की कहने का 
धारा के विपरीत 
कुछ तो बहने का। 

-यशवन्त माथुर©
14072021

09 September 2021

ताला और जिंदगी

एक समय के बाद
जिन्दगी
हो जाती है
जंग लगे
ताले की तरह
जिसके खुलने से
कहीं ज्यादा
मुश्किल होता है
उसे

दोबारा
पहले जैसा
बंद करना।
ठीक ऐसे ही
वक्त की कब्र में
भीतर तक दबे राज़
खुद खुद कर
जब आने लगते हैं सामने
तब नामुमकिन ही होता है
उसे पहले की तरह
पाटना और समतल करना
क्योंकि
बदलाव के नए दस्तूर
और ऊबड़ खाबड़ पाखंड
मिलने नहीं देते
श्वासों के चुनिंदा
अवशेषों को
स्मृतियों की
दो गज जमीन।

-यशवन्त माथुर©
29082021

04 September 2021

इश्तहार हूं....

खुली पलकों के सामने से
गुजर जाया करता हूं
समय के पन्नों से
पलट जाया करता हूं
बावजूद इसके
कि लिखा जाता हूं
अमिट स्याही से
याद रहता हूं कभी
और अक्सर
भुला दिया जाता हूं।
यूं तो
रंगीन तस्वीरें कई हैं
मेरे भीतर
और ढेरों शब्दों का
हमसफर बनकर
पड़ जाता हूं
किसी कोने में
धूल फांकने को..
या कि किसी ढेर में
जला दिया जाता हूं।
मैं इश्तहार हूं!
जज़्बात मुझमें कहीं भी नहीं
हूं इश्क ऐसा कि
दिलों तक
पहुंच ही जाता हूं।

-यशवन्त माथुर©
04092021

29 August 2021

खुशियाँ उनको मिलती हैं....

इस कलियुग में किस्मत के
सब खेल निराले होते हैं 
खुशियाँ उनको मिलती हैं 
जो दिल के काले होते हैं। 

जिनके मन की गहरी नफरत 
जब-तब रंग दिखाती है 
बदज़ुबानी बाहर आकर 
अपना असल दिखाती है। 

बेईमानी और कपट ही जिनकी 
हर रात के उजाले होते हैं 
खुशियाँ उनको मिलती हैं 
जो दिल के काले होते हैं। 

जिनके उसूल टंगे दीवारों पर 
श्रद्धा-सुमन को तरसते रहते 
शीशे के गलियारों में 
सज कर समय संजोते रहते । 

चार दिन की चाँदनी में जो 
खूब मतवाले होते हैं 
खुशियाँ उनको मिलती हैं 
जो दिल के काले होते हैं। 

-यशवन्त माथुर©
02082021

04 June 2021

तब और अब

इसके पहले कैसा था 
इसके पहले ऐसा था 
वैसा था, जैसा था 
थोड़ा था 
लेकिन पैसा था। 

इसके पहले थे 
अच्छे दिन
कटते नहीं थे 
यूँ गिन-गिन।   

इसके पहले दाना था 
दो वक़्त का खाना था 
खुली सड़क पर 
हर गरीब का 
यूँ ही आना-जाना था। 

लेकिन अब-

अब बदल गया है ज़माना 
रुक गया है आना-जाना 
बड़ी मुश्किल में पीना-खाना 
सुबह-शाम  चूल्हा जलाना।  

इंसान से महंगा हो गया तेल 
पास सभी हैं कोई ना फेल 
रुपये से डॉलर ऐंठ कर कहता 
'उसकी' करनी अब तू झेल। 

-यशवन्त माथुर©
04062021 

03 June 2021

एक तूफाँ हूँ......

हो जरूरत कभी, तो याद कर लेना,
मैं एक तूफाँ हूँ, यूँ ही आया करता हूँ।

दुआ सन्नाटा भी करता है, कि दूर ही रहूँ,
अक्सर हदों से आगे, गुजर जाया करता हूँ।

जो देखते हो तुम-
कहीं झुकी हुई घासें और गिरे हुए दरख़्त,
एकतरफा प्रेम में, ये वक़्त  जाया करता हूँ।

कुसूर मेरा नहीं, नामाकूल हवा का भी है,
जब टूटता है दिल, तो बरस जाया करता हूँ।


-यशवन्त माथुर©
02062021 

23 May 2021

बादल

Image:Yashwant Mathur©
मोबाइल के टावरों...
ऊंची इमारतों की छतों को
छूकर निकलने वाला
बादलों का हर एक टुकड़ा
स्पीड ब्रेकर की तरह
बीच राह में आने वाली
टहनियों
और इक्का दुक्का पत्तियों से
बची खुची सांसों का हाल
पूछता हुआ
निकल लेता है
सूखी पथरीली
रेतीली धरती पर
बरसने को
जिसकी तह में
हरी घास की जड़ें नहीं
अब मिलते हैं
सिर्फ
विलुप्त होती
सभ्यता के अवशेष।

-यशवन्त माथुर©
19052021

22 May 2021

Rain drops and few other pics

Date of capture: 20/05/2021, Lucknow (UP)
Camera: Canon Sx740hs
 TO BE USE WITH PHOTO CREDIT.


























COPYRIGHT-YASHWANT MATHUR©

21 May 2021

महामारी के बीच लोगों पर एक और वार:मधुरेन्द्र सिन्हा

एक तरफ देश महामारी से जूझ रहा है वहीं दूसरी तरफ महँगाई इस कदर आसमान छू रही है कि मध्य वर्ग का घर चलाना दुश्वार हो गया है। लॉकडाउन की वजह से जहाँ दिहाड़ी मजदूर भूखों मरने के कगार पर हैं वहीं शासन-प्रशासन के कर्ता-धर्ता मूक रह कर मौत की एक और त्रासद लहर के आने का जैसे इंतजार ही कर रहे हैं। आवश्यक वस्तु अधिनियम के कुछ विशेष प्रावधानों ( जिनमें कुछ मूलभूत अनाजों और अन्य उत्पादों की जमाखोरी पर प्रतिबंध था) के हटाए जाने या उनमें ढील देने का असर अब सामने आने लगा है।
 
नवभारत टाइम्स के आज के अंक में प्रकाशित मधुरेन्द्र सिन्हा जी का आलेख इसी समस्या की ओर इशारा करता है जो संकलन की दृष्टि से साभार यहाँ प्रस्तुत है- 


महामारी के बीच लोगों पर एक और वार

पिछले दो महीनों से बढ़ रही महंगाई इस महीने ग्यारह साल के उच्चतम बिंदु पर जा पहुंची है। रोजमर्रा इस्तेमाल आने वाले सामान के दाम बेतहाशा बढ़ गए हैं, जिससे महामारी से जूझ रहे लोगों के सामने बड़ा संकट खड़ा हो गया है। कोविड के कारण लाखों लोगों की नौकरियां जा चुकी हैं और करोड़ से भी ज्यादा लोग बेरोजगार हैं। मिडल क्लास का बजट चारों खाने चित्त हो गया है तो कम आय वर्ग के लोगों की तो जान सांसत में आ गई है। आंकड़े बता रहे हैं कि अप्रैल महीने में थोक सामानों की इन्फ्लेशन दर 10.5 प्रतिशत पर जा पहुंची। इससे पहले साल 2010 के अप्रैल में जब यूपीए की सरकार थी, तो महंगाई इस ऊंचाई पर पहुंची थी। इसी वजह से तब सरकार की लोकप्रियता में कमी आनी शुरू हो गई थी।

पेट्रोल-डीजल के बढ़ते भाव
रोजमर्रा के खाने-पीने के सामानों की कीमतों में अप्रैल महीने में 4.9 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। फलों, अंडों, मछलियों की कीमतें मार्च-अप्रैल में लगातार बढ़ती रहीं। इस दौरान पेट्रोल-डीजल के दाम तो बढ़े ही, मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री के सामानों की कीमतों में 9 प्रतिशत का इजाफा हुआ। ईंधन और पावर ग्रुप में तो सालाना महंगाई 21.2 प्रतिशत तक बढ़ी, जिसके लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की महंगाई को कसूरवार बताया जा रहा है। लेकिन रोजमर्रा की जिन चीजों की कीमतों में सबसे ज्यादा इजाफा हुआ वह है खाने वाला तेल। इसकी कीमतें अभूतपूर्व स्तर पर जा पहुंचीं। गरीबों के खाने में इस्तेमाल होने वाला सरसों तेल 200 रुपये प्रति लीटर की ओर जा पहुंचा है। महाराष्ट्र-गुजरात में खाना बनाने में काम आने वाला मूंगफली का तेल सवा दो सौ रुपये तक पहुंच गया है। इसे स्वाभाविक नहीं माना जा सकता क्योंकि देश में तिलहन की पैदावार लगातार बढ़ती जा रही है। इस बार भी सरसों की बंपर फसल हुई है। इसके बावजूद बड़े कारखानेदारों और सटोरियों ने कीमतें आसमान पर पहुंचा दी हैं। यह भी ध्यान देने वाली बात है कि भारत दुनिया में सबसे ज्यादा खाद्य तेल उत्पादित करता है और सबसे ज्यादा खपत भी करता है। इसलिए यहां कीमतें बढ़ने पर बाहर से कोई राहत नहीं मिल पाती।

महामारी से निपटने में उलझी सरकार का इस ओर ध्यान ही नहीं है। हालत यह है कि खाने के तेलों में आज अरबों रुपये का सट्टा चल रहा है लेकिन न तो केंद्र सरकार कुछ कर पा रही है और न ही राज्य सरकार। इसके पीछे इंटरनैशनल मार्केट में पाम ऑयल के बढ़ते दामों की भूमिका बताई जा रही है। हालांकि भारत में पाम ऑयल के उत्पादन में लगातार बढ़ोतरी हो रही है, फिर भी हम बहुत बड़े पैमाने पर इसका आयात करते हैं। इसकी कीमतें बढ़ने से साबुन के दाम में 5-7 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हो गई है। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती। एफएमसीजी कंपनियां आने वाले समय में साबुन, ब्यूटी प्रॉडक्ट्स और खाने वाले चिप्स की कीमतें 10 से 13 प्रतिशत तक बढ़ा सकती हैं। सरकार ने पाम ऑयल के आयात को घटाने के इरादे से उस पर कुल 35.75 प्रतिशत का टैक्स और सेस लगा दिया है। इसका असर ठीक-ठीक क्या होता है यह देखना पड़ेगा। आम तौर पर ऐसे मामलों में होता यही है कि आयात तो घटता नहीं, सरकार की आमदनी जरूर बढ़ जाती है। दिसंबर 2020 से इसका आयात लगातार बढ़ रहा है। सबसे खतरनाक बात यह है कि इसकी मिलावट सरसों और अन्य खाद्य तेलों में भी हो रही है।

देश में पेट्रोल और डीजल की कीमतें आसमान छू रही हैं। इसका एक बड़ा कारण है केंद्र और राज्य सरकारों का रेवेन्यू कलेक्शन ड्राइव। दोनों सरकारें जबर्दस्त टैक्स वसूली कर रही हैं। हालत यह है कि 36 रुपये का कच्चा तेल डीजल बनकर दिल्ली में 83 रुपये में बिक रहा है। इसमें 31 रुपये 80 पैसे एक्साइज ड्यूटी है और 12.19 रुपये का वैट। डीजल की महंगी होती कीमतों ने देश में महंगाई बढ़ाई है, इसमें कोई शक नहीं है। इससे माल ढुलाई की दरें बढ़ गई हैं, जिसका सबसे ज्यादा नुकसान किसानों को हो रहा है। उन्हें अपनी उपज मंडियों में भेजने के लिए पहले से कहीं ज्यादा भाड़ा देना पड़ रहा है। आलू-टमाटर जैसी सब्जियों को तो फेंकने की स्थिति आ गई है क्योंकि ढुलाई की लागत उनकी कीमत से कहीं ज्यादा है। सरकार एक ओर किसानों की बात करती है और उनके खाते में पैसे भी भेजती है, लेकिन इस ओर उसकी नज़रें नहीं जा रही हैं। कंपनियों के लिए भी बढ़ा हुआ भाड़ा चुकाना भारी पड़ रहा है क्योंकि देश के बड़े हिस्से में लॉकडाउन है और सामानों की आवाजाही कम हो रही है।

मांग में कमी का खतरा
सरकार को रेवेन्यू बढ़ाने के लिए डीजल-पेट्रोल पर टैक्स बढ़ाने का यह तरीका बदलना होगा। यह पुराने कंजरवेटिव इकॉनमिक्स का हिस्सा है। इससे इकॉनमी को ही चोट पहुंचती है। बढ़ी हुई कीमतों के कारण लोग सामान खरीदने से कतराते हैं। दूसरे शब्दों में, इससे मांग में कमी आती है, जिसका परिणाम यह होता है कि मैन्युफैक्चरिंग उद्योग की गति धीमी पड़ जाती है। कुल मिलाकर इससे बाज़ार में धन का प्रवाह धीमा होता है और रोजगार में कमी आने का खतरा मंडराने लगता है। जैसा कि हमने 2020 के अप्रैल में देखा था।

समय आ गया है कि सरकार को तेलों और अन्य रोजमर्रा की चीजों के दामों पर अंकुश लगाना होगा यानी फूड इन्फ्लेशन मैनेजमेंट पर जोर देना होगा। वरना इसके गंभीर परिणाम कई स्तरों पर भुगतने होंगे।

-मधुरेन्द्र सिन्हा©

19 May 2021

बेमौसम......

बेमौसम की बारिश, बेमौसम इंसान।
बेमौसम में भीग रहीं, फसलें बेईमान।

बेमौसम महंगाई ने, छेड़ी ऊंची तान।
बेमौसम बीमारी में, फंसी हुई है जान।

बेमौसम क्या करूं,अपने मन की बात।
बेमौसम  दिन है ऐसा, जैसे गहरी रात।
 
-यशवन्त माथुर©
19052021

18 May 2021

कोविड के इस असर की तो बात ही नहीं हो रही: जयंती लाल भंडारी


आज के नवभारत टाईम्स में प्रबुद्ध अर्थशास्त्री श्री जयंती लाल भंडारी का एक महत्त्वपूर्ण आलेख प्रकाशित हुआ है, जिसमें उन्होंने लॉकडाउन के चलते उत्पन्न हुए रोजगार संकट पर तर्कसंगत प्रकाश डाला है। 
संकलन की दृष्टि से यह आलेख साभार यहाँ प्रस्तुत है- 

कोविड के इस असर की तो बात ही नहीं हो रही
कोरोना की दूसरी लहर के बीच देश में आर्थिक, औद्योगिक, रोजगार के मोर्चे पर चुनौतियां बढ़ने और स्वास्थ्य क्षेत्र के बुनियादी ढांचे के चरमरा जाने से मध्यम वर्ग की मुश्किलें बढ़ गई हैं। जहां सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग (एमएसएमई) और स्व-रोजगार करने वाले मध्यम वर्ग के लोग अपने कारोबार पर पड़ रहे प्रतिकूल प्रभाव को लेकर चिंतित हैं, वहीं नौकरीपेशा आमदनी घटने जैसी परेशानियां झेल रहे हैं। अमेरिका के प्यू रिसर्च सेंटर की एक रिपोर्ट के मुताबिक महामारी के कारण आए आर्थिक संकट से वर्ष 2020 के दौरान भारत में मध्यम वर्ग के लोगों की संख्या 9.9 करोड़ से घटकर 6.6 करोड़ रह गई। मध्यम वर्ग में उन लोगों को माना गया है, जो 10 डॉलर से 20 डॉलर यानी करीब 700 रुपये से 1500 रुपये प्रतिदिन कमाते हैं।

पाबंदियों का प्रभाव
इसमें दो मत नहीं कि पिछले साल आई कोरोना की पहली लहर ही मध्यम वर्ग की आमदनी काफी घटा चुकी थी। मध्यम वर्गीय परिवारों पर कर्ज का बोझ भी बढ़ा है। ऐसे में कोरोना की दूसरी लहर के प्रभावों को लेकर चिंता और बढ़ जाती है। खासतौर पर कोविड के इलाज के लिए जिस तरह से पैसा खर्च करना पड़ रहा है, उससे बड़े पैमाने पर मध्यम वर्गीय लोगों की बचत में सेंध लगी है। उधर, सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि मार्च 2021 की तुलना में अप्रैल 2021 में देश ने 75 लाख नौकरियां गंवाई हैं। इसके कारण बेरोजगारी दर बढ़ी है। खासकर संक्रमण बढ़ने के साथ कई राज्यों में लॉकडाउन जैसी पाबंदियां लगाए जाने से आर्थिक गतिविधियों पर प्रतिकूल असर पड़ा है। इससे अप्रैल 2021 में बेरोजगारी दर चार महीने के सबसे ऊंचे स्तर 8 प्रतिशत पर पहुंच गई। शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी दर 9.78 प्रतिशत है तो ग्रामीण क्षेत्रों में 7.13 प्रतिशत। इससे पहले, मार्च 2021 में बेरोजगारी दर 6.50 प्रतिशत थी और स्वाभाविक ही अप्रैल की तुलना में ग्रामीण और शहरी दोनों जगह यह दर कम थी।

इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि कोरोना के दूसरे घातक संक्रमण के बीच फिलहाल रोजगार के मोर्चे पर स्थिति उतनी बुरी नहीं है, जितनी कि 2020 में पहले देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान देखी गई थी। उस समय बेरोजगारी दर 24 प्रतिशत तक पहुंच गई थी। यह तथ्य भी उभरकर सामने आ रहा है कि कोरोना की दूसरी लहर को नियंत्रित करने के लिए देशव्यापी कठोर लॉकडाउन के बजाय प्रदेश स्तर की पाबंदियां लगाने की जो नीति अपनाई गई, उससे उद्योग-कारोबार और रोजगार पर पहली लहर जैसा तीखा प्रभाव नहीं पड़ा है।

लेकिन मध्यम वर्ग के सामने कुछ अलग तरह की मुश्किलें जरूर दिखाई दे रही हैं। जहां वर्क फ्रॉम होम की वजह से टैक्स में छूट के कुछ माध्यम कम हो गए हैं, वहीं डिजिटल तकनीक पर निर्भरता के कारण ब्रॉडबैंड जैसे खर्चों में इजाफा हो गया है। मई 2021 की शुरुआत से ही वैश्विक बाजार में कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने से भारत में भी पेट्रोल-डीजल की कीमतों में उछाल के साथ-साथ महंगाई बढ़ती दिखाई दे रही है। नतीजा यह कि इस समय मध्यम वर्ग के करोड़ों लोगों के चेहरे पर बच्चों की शिक्षा, रोजगार, कर्ज पर बढ़ते ब्याज और नियमित रूप से ईएमआई चुकाने की मजबूरी से जुड़ी चिंताएं साफ नजर आती हैं।

इसमें दो मत नहीं कि सरकार ने छोटे उद्योग-कारोबार से जुड़े मध्यम वर्ग की मुश्किलों को दूर करने के लिए कुछ कदम उठाए हैं। 5 मई को रिजर्व बैंक ने व्यक्तिगत कर्जदारों और छोटे कारोबारों के लिए कर्ज पुनर्गठन की सुविधा बढ़ाई है और कर्ज का विस्तार किया है, उससे जरूर राहत मिलेगी। इस नई सुविधा के तहत 25 करोड़ रुपये तक के बकाये वाले वे कर्जदार अपना लोन दो साल के लिए पुनर्गठित करा सकते हैं, जिन्होंने पहले मॉरेटोरियम या पुनर्गठन का लाभ नहीं लिया है। यह नई घोषित सुविधा 30 सितंबर, 2021 तक उपलब्ध होगी। स्वास्थ्य क्षेत्र की वित्तीय जरूरतों को पूरा करने के लिए आरबीआई ने 50,000 करोड़ रुपये की नकदी की व्यवस्था की है। इस योजना के तहत बैंक टीकों और चिकित्सकीय उपकरणों के विनिर्माण, आयात या आपूर्ति से जुड़े कारोबारियों को कर्ज दे सकेंगे। इसके अलावा बैंक अस्पतालों, डिस्पेंसरियों और पैथॉलजी लैब्स को भी कर्ज दे सकेंगे।

निसंदेह मध्यम वर्ग को मुश्किलों से निकालने के लिए उसकी क्रय शक्ति बढ़ाने वाले अधिक उदार कदम जरूरी हैं। सरकार ने पिछले वित्त वर्ष 2020-21 में कोरोना काल में मार्च से अगस्त के छह माह के लिए लोन मॉरेटोरियम दिया था। अब आरबीआई द्वारा एमएसएमई के कर्ज को एनपीए की श्रेणी में डालने के नियम आसान बनाने होंगे। एमएसएमई क्षेत्र में कर्ज को एनपीए मानने के लिए मौजूदा 90 दिन की अवधि को बढ़ाकर 180 दिन किया जाना लाभप्रद होगा। आपात कर्ज सुविधा गारंटी योजना (ईसीएलजीएस) को आगे बढ़ाने या उसे नए रूप में लाने जैसे कदम भी राहतकारी होंगे।

नया डायरेक्ट टैक्स कोड
इस समय मौजूदा वित्त वर्ष 2021-22 के बजट के तहत स्वास्थ्य, शिक्षा, उद्योग-कारोबार, शेयर बाजार और बुनियादी ढांचे के विकास से संबंधित विभिन्न योजनाओं के क्रियान्वयन में तेजी लाने की जरूरत है। यह भी उल्लेखनीय है कि नवंबर 2017 में नई प्रत्यक्ष कर संहिता के लिए अखिलेश रंजन की अध्यक्षता में गठित टास्क फोर्स द्वारा विभिन्न देशों की प्रत्यक्ष कर प्रणालियों और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लागू प्रत्यक्ष कर संधियों का तुलनात्मक अध्ययन कर अपनी रिपोर्ट 19 अगस्त, 2019 को सरकार को सौंपी जा चुकी है। ऐसे में अब रंजन समिति की रिपोर्ट के मद्देनजर नए डायरेक्ट टैक्स कोड और नए इनकम टैक्स कानून को मूर्त रूप देकर छोटे आयकरदाताओं व मध्यम वर्ग को नई राहत दी जा सकती है। 15वें वित्त आयोग की सिफारिशों के मद्देनजर इस समय स्वास्थ्य क्षेत्र पर जो सावर्जनिक व्यय जीडीपी का करीब 1 फीसदी है, उसे बढ़ाकर ढाई फीसदी तक ले जाने से मध्यम वर्ग को स्वास्थ्य संबंधी खर्चों में बचत के रूप में बड़ी राहत मिलेगी।

-जयंती लाल भंडारी©

12 May 2021

लॉकडाउन

मिले दवा  न मिले दवा 
वो गुरबत से दबा दबा 
खुली छत के कमरे में 
बंद पलकों में है दुआ 

उसके बच्चे भूखे-प्यासे 
माँ के आँसू पी-पी कर 
पिता की ताला-बंदी में 
रहना कठिन यूँ जी कर  

ककहरा को भूल काल 
अब क्या लिख लाया है 
हर पन्ने पर एक हर्फ़ ही 
कुछ समझ न आया है । 

-यशवन्त माथुर©
12052021

07 May 2021

सबकी सुनता जाऊंगा.........

शब्दों के इस अथाह समुद्र की 
क्या तली को कभी छू पाऊँगा?
या ऐसे ही इन लहरों के संग 
अन्त तक बहता जाऊंगा ?

नहीं पता कहाँ पर मंज़िल
कब तक चलते जाना है ?
कितने कदम बढ़ चुका अब तक
और कितना थकते जाना है ? 

अपनी हदों के भीतर से
क्या बाहर कभी आ पाऊँगा ?
या निर्जीव दीवार के जैसे
सबकी सुनता जाऊंगा?

-यशवन्त माथुर©
29/01/2019

04 May 2021

जाने क्या काल ने ठाना है?

कितने ही चले गए 
और कितनों को जाना है 
थोड़ी सी ज़िंदगी है 
या मौत का बहाना है। 

अपनों का रुदन सुन-सुन कर 
गैरों की भी आँखें भरती हैं 
हर एक दिन की आहट पर 
क्या होगा सोच कर डरती हैं। 

दहशत बैठी मन के भीतर 
बाहर गहरे सन्नाटे में 
काली रात से इन दिनों में 
जाने क्या काल ने ठाना है?

(मेरे मित्र डॉक्टर प्रशांत चौधरी,SDM,बरेली को विनम्र श्रद्धांजलि, 
जिनके असमय जाने से मेरा दिल टूट गया है)

-यशवन्त माथुर©
04052021

01 May 2021

सच तो सामने आएगा ही

सच 
सिर्फ वही नहीं होता 
जिसे हम देखते हैं 
या 
जो हमें दिखाया जाता है 
सच 
कभी-कभी छिपा होता है 
घने अंधेरे की 
कई तहों के भीतर 
जिसे कुरेदना 
आसान नहीं होता
और फिर भी 
शंकावान होकर 
गर कोई दिखाना चाहे भी 
तो उसे कर दिया जाता है किनारे 
पागल-सनकी और न जाने 
क्या-क्या कहकर 
इसके बाद भी 
कई युगों के बाद 
सच से 
साक्षात्कार का समय आने तक 
हम देख चुके होते हैं 
विध्वंस के कई दौर 
इसलिए 
बेहतर सिर्फ यही है 
कि हम सुनें 
उन चेतना भरी आवाजों को
जिन्हें दबा दिया जाता है 
हर तरफ उठ रही 
आग की लपटों 
और 
बेहिसाब शोर में। 

-यशवन्त माथुर©
01052021

22 April 2021

वक़्त के कत्लखाने में-22

हो रहा है 
वही सब कुछ अनचाहा 
जो न होता 
तो यूँ पसरा न होता 
दिन और रात के चरम पर 
दहशत और तनाव का 
बेइंतिहा सन्नाटा 
लेकिन हम! 
हम बातों 
और वादाखिलाफी के शूरवीर लोग 
वर्तमान का 
सब सच जानते हुए भी 
तटस्थता का कफन ओढ़ कर 
समय से पहले ही 
लटकाए हुए हैं 
भविष्य की कब्र में अपने पैर ..
सिर्फ इसलिए 
कि 
वक़्त के कत्लखाने में 
प्रतिप्रश्नों की 
कोई जगह नहीं। 

-यशवन्त माथुर©
22042021

28 March 2021

तो कितना अच्छा हो

सामाजिक दूरी की 
मान्यता वाले 
इस कल्पनातीत दौर में 
चुटकी भर रंगों की 
औपचारिकता के साथ 
बुरा मानने को मिल चुकी 
वैधानिकता के साथ 
बस तमन्ना इतनी है 
कि सड़कों के किनारे 
और झुग्गियों में रहने वाले 
गर रख सकें जीवंत 
शहरी रईसों द्वारा 
इतिहास बना दी गई 
फागुन की 'असभ्यता' को 
तो कितना अच्छा हो।  

तो कितना अच्छा हो 
कि आखिर कहीं तो 
हम साक्षात हो सकें 
अपने बीत चुके वर्तमान से 
जिसने कैद कर रखा है
गली-गली की मस्तियों को  
डायरियों और तस्वीरों में 
जिसने घूंट-घूंट कर पिया है 
और  जीया है 
भंग की तरंग में 
लड़खड़ाती जुबान 
और कदमों की थिरकन को
काश!
यूँ समय के सिमटने के साथ 
हम कभी भूल न पाएं 
हिलना-मिलना 
और गले लगना 
तो कितना अच्छा हो।  
.
(होली का पर्व आप सबको सपरिवार शुभ और मंगलमय हो) 

-यशवन्त माथुर©
28032021

27 March 2021

चांदी के वर्क से व्यंजनों की खूबसूरत सजावट: डॉक्टर कृपा शंकर माथुर

उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के भूतपूर्व सदस्य एवं लखनऊ विश्वविद्यालय में मानव विज्ञान विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष डॉक्टर कृपा शंकर माथुर साहब मेरे पिता जी के मामा जी थे और उनका विशेष स्नेह सदा ही पिता जी पर रहा। 48 वर्ष की आयु में 21 सितंबर 1977 को उनके निधन का समाचार एवं चांदी के वर्क पर आधारित उनकी लेखमाला (जो अपूर्ण रह गई) का क्रमिक भाग 22 सितंबर 1977 के नवजीवन में प्रकाशित हुआ था, जो संग्रह की दृष्टि से यहाँ प्रस्तुत है-

चांदी के वर्क से व्यंजनों की खूबसूरत सजावट

'नवजीवन’ के विशेष अनुरोध पर डाक्टर कृपा शंकर माथुर ने लखनऊ की दस्तकारियों के संबंध में ये लेख लिखना स्वीकार किया था। यह लेख माला अभी अधूरी है, डाक्टर माथुर की मृत्यु के कारणवश अधूरी ही रह जाएगी, यह लेख इस शृंखला में अंतिम है। 

गर आपसे पूछा जाए कि आप सोना या चांदी खाना पसंद करेंगे, तो शायद आप इसे मजाक समझें लेकिन लखनऊ में और उत्तर भारत के अधिकांश बड़े शहरों में कम से कम चांदी वर्क के रूप में काफी खाई जाती है। हमारे मुअज़्जिज मेहमान युरोपियन और अमरीकन अक्सर मिठाई या पलाव पर लगे वर्क को हटाकर ही खाना पसंद करते हैं, लेकिन हम हिन्दुस्तानी चांदी के वर्क को बड़े शौक से खाते हैं। 

चांदी के वर्क का इस्तेमाल दो वजहों से किया जाता है। एक तो खाने की सजावट के लिये और दूसरे ताकत के लिये। मरीजों को फल के मुरब्बे के साथ चांदी का वर्क अक्सर हकीम लोग खाने को बताते हैं। 

(दैनिक 'नवजीवन'-22 सितंबर 1977, पृष्ठ-04) 
कहा जाता है कि चांदी के वर्क को हिकमत में इस्तेमाल करने का ख्याल हकीम लुकमान के दिमाग में आया, सोने-चांदी मोती के कुशते तो दवाओं में दिये ही जाते हैं और दिये जाते रहे हैं, लेकिन चांदी के वर्क का इस्तेमाल लगता है कि यूनान और मुसलमानों की भारत को देन  है। चांदी के चौकोर टुकड़े को हथौड़ी से कूट-कूट कर कागज़ से भी पतला वर्क बनाना, इतना पतला कि वह खाने की चीज के साथ बगैर हलक में अटके खाया जा सके। कहते हैं कि यह विख्यात हकीम लुकमान की ही ईजाद थी। जिनकी वह ख्याति है कि मौत और बहम के अलावा हर चीज का इलाज उनके पास मौजूद था। 

लखनऊ के बाजारों में मिठाई अगर बगैर चांदी के वर्क के बने  तो बेचने वाला और खरीदने वाला दोनों देहाती कहे जाएंगे। त्योहार और खासकर ईद के मुबारक मौके पर शीरीनी और सिवई की सजावट चांदी के वर्क से कि जाती है। शादी ब्याह के मौके पर नारियल, सुपारी और बताशे को  भी चांदी के वर्क से मढ़ा जाता है। यह देखने में भी अच्छा लगता है और शुभ भी माना जाता है। क्योंकि चांदी हिंदुस्तान के सभी बाशिंदों में पवित्र और शुभ मानी जाती है। 

लखनऊ के पुराने शहर में चांदी के वर्क बनाने के काम में चार सौ के करीब कारीगर लगे हैं। यह ज्यादातर मुसलमान हैं, जो चौक और उसके आस-पास की गलियों में छोटी-छोटी सीलन भरी अंधेरी दुकानों में दिन भर बैठे हुए वर्क कूटते रहते हैं।ठक-ठक की आवाज से जो पत्थर की निहाई पर लोहे की हथौड़ी से कूटने पर पैदा होती है, गलियाँ गूँजती रहती हैं। 

इन्हीं में से एक कारीगर मोहम्मद आरिफ़ से हमने बातचीत की। इनके घर से पाँच-छह पुश्तों से वर्क बनाने का काम होता है। चांदी के आधा इंच वर्गाकार टुकड़ों को एक झिल्ली के खोल में रखकर पत्थर की निहाई पर और लोहे की हथौड़ी से कूटकर वर्क तैयार करते हैं। डेढ़ घंटे में कोई डेढ़ सौ वर्कों की गड्डी तैयार हो जाती है, लेकिन यह काम हर किसी के बस का नहीं है। हथौड़ी चलाना भी एक कला है और इसके सीखने में एक साल से कुछ अधिक समय लग जाता है। इसकी विशेषता यह है कि वर्क हर तरफ बराबर से पतला हो,चौकोर हो,और बीच से फटे नहीं। 

वर्क बनाने वाले कारीगर को रोजी तो कोई खास नहीं मिलती, पर यह जरूर है कि न तो कारीगर और न ही उसका बनाया हुआ सामान बेकार रहता  है। मार्केट सर्वे से पता चलता है कि चांदी के वर्क की खपत बढ़ गई है और अब यह माल देहातों में भी इस्तेमाल में आने लगा है। 

ठक…. ठक…. ठक। घड़ी की सुई जैसी नियमितता से हथौड़ी गिरती है और करीब डेढ़ घंटे में 150 वर्क तैयार। 

प्रस्तुति:यशवन्त माथुर  
संकलन:श्री विजय राज बली माथुर 

19 March 2021

'राष्ट्रसंघ - एक बंधुआ विश्व संस्था' : श्री बी.डी.एस. गौतम (पुरानी कतरनों से, भाग-2)

राष्ट्र संघ -एक बंधुआ विश्व संस्था
संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव पेरेज द कुइयार कह रहे हैं कि इराक के विरुद्ध अमेरिका और उसके मित्र देशों की कार्यवाही संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्यवाही नहीं है, पर जॉन मेजर से लेकर जॉर्ज बुश तक अमेरिकी नेतृत्व में इराक के विरुद्ध लड़े जा रहे युद्ध को इराक से संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव को मनवाने के लिए की जा रही कार्यवाही बनाते हैं। यह कैसा विरोधाभास है कि मित्र देश संयुक्त राष्ट्र संघ की हैसियत बनाए रखने के लिए इराक पर हमला बोल देते हैं और महासचिव को तब तक कोई सूचना ही नहीं रहती। कुइयार ने पिछले दिनों एक पश्चिमी अखबार को दिए गए अपने इंटरव्यू में बताया था कि युद्ध शुरू होने के 1 घंटे बाद मुझे इसकी सूचना मिली। कुइयार ने यह भी बताया अमेरिका ने जिस समय इराक पर हमला बोला उससे कुछ ही घंटे बाद वे खाड़ी संकट के शांति पूर्वक हल के लिए एक और राजनैतिक प्रयास कर रहे थे। मगर अमेरिका ने उनसे यह मौका छीन लिया। पेरेज द कुइयार के इस कथन से साफ-साफ जाहिर होता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ नामक जिस संस्था को पिछले 45 सालों से विश्व की शांति और स्वतंत्रता की रक्षक माना जाता है वह निरा एक ढोंग है। हालांकि इतिहास में यह ढोंग पहले भी कई बार प्रकट हो चुका है, मगर वर्तमान खाड़ी युद्ध ने पूरी तरह साबित कर दिया है की यह संस्था अमेरिका की बंधुआ है।
(अमर उजाला, आगरा में 18 फरवरी 1991 को प्रकाशित)

राष्ट्र संघ की कोख से जन्मी संयुक्त राष्ट्र संघ का 45 वर्षीय इतिहास गवाह है कि विश्व संस्था के नाम पर यह अपनी ताकत का इस्तेमाल अमेरिका की दादागिरी को नैतिक सर्टिफिकेट प्रदान करने में करती रही है और यह आज से नहीं बल्कि तब से जारी है जब हैरी एस ट्रूमैन के नेतृत्व में अमेरिका दूसरे विश्व युद्ध के बाद दुनिया में अपनी आर्थिक और सैनिक दादागिरी जमाने का इरादा बना चुका था। अमेरिका के इस इरादे की पुष्टि और  संयुक्त राष्ट्र संघ के निष्पक्षता की पोल तो वास्तव में 27 जून 1950 को ही खुल गई थी जब राष्ट्रपति ट्रूमैन ने अपनी हवाई सेना और समुद्री बेड़े को उत्तर कोरिया के खिलाफ तुरंत कार्यवाही का आदेश दिया था।

संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में  कहा गया था  कि दो देशों के आपसी झगड़े में तीसरा देश संयुक्त राष्ट्र संघ की अनुमति के बाद ही कूदेगा, मगर अमेरिका ने इस तरह के किसी कानून के पालन को जरूरी नहीं समझा। 25 जून 1950 को उत्तरी और दक्षिणी कोरिया दोनों के बीच लड़ाई छिड़ गई। अमेरिका दूसरे ही दिन इस लड़ाई में हस्तक्षेप हेतु उतर आया जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस हस्तक्षेप को कानूनी जामा 5 महीने बाद यानी नवंबर 1950 में जाकर पहनाया। यही नहीं नवंबर 1950 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने जब उत्तरी कोरिया के खिलाफ बल प्रयोग का प्रस्ताव पास किया तो उसी अमेरिकी सैनिक कमांडर मैकाथेर को संयुक्त सेनाओं का कमांडर जनरल नियुक्त कर दिया जो 5 महीने पहले से ही अमेरिकी कार्यवाही का नेतृत्व कर रहा था।

वर्तमान उदाहरण को ही देख लीजिए अपने आप पता चल जाएगा कि अमेरिका संयुक्त राष्ट्र का आदेश मान रहा है या संयुक्त राष्ट्र अमेरिका का। 5 अगस्त 1990 को अमेरिकी कांग्रेस के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध लगाता है, 16 अगस्त को संयुक्त राष्ट्र इराक के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध पास कर देता है, 16 अगस्त को अमेरिकी नौसेना आर्थिक प्रतिबंध के बहाने खाड़ी में अपना मोर्चा जमाती है और नवंबर के आखिरी सप्ताह में यू एन ओ इराक के खिलाफ बल प्रयोग का प्रस्ताव पास कर देता है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि नवंबर तक अमेरिका इराक के खिलाफ लगातार अपने मोर्चे सजाने में लगा रहा। 10हजार  से शुरुआत करके 3लाख  सैनिक तक इस बीच उसने खाड़ी में जमा कर दिए। स्पष्ट है यू एन ओ इराक के खिलाफ सितंबर में भी बल प्रयोग का प्रस्ताव पास कर सकता था यदि अमेरिका तुरंत लड़ाई के लिए तैयार होता।

कुवैत पर इराक के आक्रमण के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ और अमेरिका जिस तरह से सक्रिय हुए वह विश्व की शांति और स्वतंत्रता के लिए मिसाल बन सकता था बशर्ते दोनों के इरादे नेक होते। मगर अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र संघ दोनों की तत्परता तब संदिग्ध हो जाती है जब इनके इतिहास की पड़ताल की जाए। उदाहरणार्थ 14 मई 1948 को जब पैलेस्टाइन से ब्रिटिश कमिश्नर राष्ट्र संघ के मजिस्ट्रेट द्वारा दी गई जिम्मेदारियों को छोड़कर भाग आया तब संयुक्त राष्ट्र संघ या अमेरिका ने पैलेस्टाइन में शांति बनाए रखने के लिए सेना क्यों नहीं भेजी? तब तक तो अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध जैसी भी कोई बात नहीं थी। यही नहीं जब ब्रिटिश कमिश्नर के भागने के बाद यहूदियों ने हिंसा के बल पर जिस 'इस्त्राइल' नामक स्वतंत्र राष्ट्र की घोषणा की उसे मान्यता देने वाला भी अमेरिका दुनिया का पहला राष्ट्र था। यह सब कोई अकस्मात नहीं हुआ था बल्कि हैरी एस ट्रूमैन द्वारा चुनाव पूर्व यहूदियों को दिए गए उनके स्वतंत्र राष्ट्र की वायदे के मुताबिक हुआ था।

संयुक्त राष्ट्र संघ और अमेरिका की पोल 1965-66 में भी एक बार खुली थी जब यू एन ओ की निष्ठा के प्रति दुहाई देने वाला अमेरिका उसके प्रस्ताव नंबर 2232 को खुल्लम खुल्ला चुनौती देते हुए दियागा गार्सिया द्वीप को इंग्लैंड के साथ हड़प उसे दोनों ने अपना सामरिक अड्डा बना लिया। संयुक्त राष्ट्र संघ शाब्दिक निंदा के अलावा कुछ नहीं कर पाया।

संयुक्त राष्ट्र संघ के 20-21वें अधिवेशन में प्रस्ताव नंबर 2232 पास किया गया था। इस प्रस्ताव में कहां गया था कि औपनिवेशिक इलाकों की क्षेत्रीय अखंडता का आंशिक या पूर्ण उल्लंघन संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा पत्र तथा उसकी नियमावली के प्रस्ताव 1514(पराधीन देशों और जनगण को स्वतंत्रता प्रदान किया जाना) का उल्लंघन होगा। मगर ब्रिटेन और अमेरिका इस प्रस्ताव को ठेंगा दिखाते हुए 30 किलोमीटर वर्ग वाले मॉरीशस के द्वीप डियागो गार्सिया को हिंद महासागर में अपने संयुक्त हितों का सामरिक अड्डा बना लिया। बाद में ब्रिटेन ने इसे सन 2016 तक के लिए अमेरिका को ही किराए पर दे दिया। 1971 में भारत-पाक युद्ध के दौरान अमेरिकी जंगी जहाज ‘इंटरप्राइज’ यहीं से चलकर बंगाल की खाड़ी पहुंचा था। वर्तमान खाड़ी युद्ध में कहर ढा रहे अमेरिका के बमवर्षक बी 52 यहीं से गए हैं।

ऊपर के उदाहरणों से स्पष्ट है कि संयुक्त राष्ट्र संघ कभी विश्व कल्याण की संस्था ही नहीं रही। इसके उद्देश्य के मूल में सदैव अमेरिका तथा उसके साथ ही देशों का हित ही रहा है। वैसे यह स्वाभाविक भी है क्योंकि यह संस्था जिस लीग ऑफ नेशन नामक विश्व संस्था की कोख से निकली थी वह अमेरिकी राष्ट्र विल्सन की शांति थ्योरी पर आधारित है। यह बात अलग है कि तत्कालीन अमेरिकी संसद इतनी भी लिबरल नहीं थी कि वह लीग ऑफ नेशन को स्वीकार कर सकती। लीग ऑफ नेशन के बावजूद दूसरा विश्व युद्ध हो गया तो विजेता देश पुनः 1944 में वाशिंगटन के डंबरटन ओक्स नामक स्थान पर इकट्ठा हुए। जिस तरह पहले विश्व युद्ध के बाद शांति का ठेका विजयी राष्ट्रों(और उनमें भी सिर्फ अमेरिका) को मिला था उसी तरह इस बार भी शांति का ठेका विजयी देशों  ने अपने पास रखा। अगर समझा जाए तो इस विश्व संस्था का उदय ही मित्र देशों खासकर अमेरिका की मर्जी को संविधान बनाने के लिए हुआ। इसलिए इस संस्था से विश्व शांति और समानता की आशा करना ही बेमानी है। अगर विजेता देश सचमुच द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ईमानदारी से विश्व शांति के पक्षधर होते तो इस शांति योजना की रचना में शेष देशों को भी( खासकर पराजित) शामिल करते और तब इसका स्वरूप ही कुछ और होता। सच तो यह है कि अगर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व अमेरिका और सोवियत संघ नामक दो खेमों में न बंट जाता या अमेरिका के समानांतर सोवियत संघ न खड़ा होता तो अमेरिका और उसके साथी देश इस तथाकथित विश्व संस्था के जरिए भूषण का ऐसा खेल खेलते 18वीं -19वीं शताब्दी के ब्रिटिश सैन्य साम्राज्यवाद को भी मात कर देते। संभवत इसी वास्तविकता को ध्यान में रखकर सोवियत संघ ने अमेरिका के कोरिया हस्तक्षेप के बाद सुरक्षा परिषद को मान्यता प्रदान कर उसका बकायदा स्थाई सदस्य बन गया।

सोवियत संघ और चीन की सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्य बनते ही यह विश्व संस्था इस कदर नाकारा हो गई थी कि इसमें कोई मसला ही नहीं हल हुआ यह सिर्फ राजनेताओं के लिए पिकनिक स्पॉट बन कर रह गई।

अगर लॉर्ड निस्टर के शब्दों में कहा जाए तो यू एन ओ उन प्रिफेक्टरों की तरह है जो छोटे बच्चों को अनुशासन में रखना चाहते हैं परंतु स्वयं उन नियमों से जिनसे वे शासन करना चाहते हैं, बरी रहना चाहते हैं। इसलिए समय आ गया है इस कठपुतली विश्व संस्था को या तो खत्म कर देना चाहिए या फिर इसे सही अर्थों में विश्व संस्था बनाने के लिए इसकी पूरे ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन करने चाहिए।
                                                                                                                                -बी.डी.एस. गौतम


प्रस्तुति: यशवन्त माथुर 
मूल संकलनकर्ता : श्री विजय राज बली माथुर 

वक़्त के कत्लखाने में-21

समय के साथ-साथ 
सब चेहरे 
धुंधले होने लगते हैं 
लिखे हुए शब्द 
मिटने से लगते हैं 
सदियों से सहेजे हुए कागज़ 
गलने लगते हैं 
लेकिन 
उन पर रचा हुआ इतिहास 
श्रुति बन कर 
गूँजता रहता है 
वक़्त के कत्लखाने में। 

-यशवन्त माथुर©
19032021

17 March 2021

भारतीय संस्कृति का मूलतत्व : श्री हरिदत्त शर्मा (पुरानी कतरनों से, भाग-1)

इधर कुछ दिनों से पापा ने सालों से सहेजी अखबारी कतरनों को फिर से देखना शुरू किया है। इन कतरनों में महत्त्वपूर्ण आलेख और चित्र तो हैं ही साथ ही ये कतरनें आज के परिप्रेक्ष्य में समाचार पत्रों के भाषागत बदलाव को भी रेखांकित करती हैं। 

आज से समय - समय पर ये कतरनें ब्लॉग पर देता रहूँगा इससे एक तो डिजिटल माध्यम पर इनका संग्रह हो सकेगा और दूसरे संभवतः किसी के काम भी आ सकती हैं। 

शुरुआत 'नवभारत टाइम्स' के तत्कालीन समाचार  संपादक श्री हरिदत्त शर्मा जी के दैनिक प्रभात (मेरठ) में 26 जनवरी 1975 को  प्रकाशित आलेख से-
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जिसकी विशिष्टता विदेशियों ने भी स्वीकार की
भारतीय संस्कृति का मूल तत्व
-श्री हरिदत्त शर्मा
(समाचार संपादक -नवभारत टाईम्स)

ज के भारतीय बुद्धिजीवियों में यह शंका बार-बार पैदा होती है कि हम प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा से क्या ग्रहण करें? उनका आम ख्याल यह है कि जो अच्छा पुराना है, उसे ले लिया जाना चाहिए और जो सड़ -गल गया है उसे एकदम त्याग देना चाहिए। यह एकदम स्वस्थ दृष्टिकोण है।

बुद्धिजीवी वर्ग में एक ऐसा भी अंश है जो प्राचीन संस्कृति के किसी भी तत्व को आज के युग में उपयोगी नहीं मानता। उसका तर्क यह है आज का युग रॉकेट का युग है, इसलिए बैलगाड़ी के युग की पुरातन संस्कृति आज बिल्कुल निरर्थक है। उसका कहना यह भी है कि हम आज ही, आज के ही विज्ञान से परंपरा से हटकर अपनी नई संस्कृति का निर्माण करें और उसी संस्कृति के धरातल पर भव्य जीवन को प्रतिष्ठापित करें।

सतही तौर पर देखने से इन लोगों की यह बात ठीक सी लगती है और इसीलिए समाज का एक हिस्सा ऐसे बुद्धिजीवियों का अनुसरण कर ही रहा है।

जो लोग इस प्रश्न को सतही तौर पर नहीं लेते वे इस प्रवृत्ति को सामाजिक दृष्टि से भयावह मानते हैं, क्योंकि किसी भी देश की संस्कृति चाहे वह कितनी भी संकटापन्न रही है और चाहे उसमें कितने ही हीन भाव समाविष्ट क्यों न हो गए हों उसमें कहीं ना कहीं ऐसे सूत्र अवश्य होते हैं जो इंसानियत को किसी न किसी तरह से आगे बढ़ाते रहते हैं। इस तरह से वह संस्कृति विश्व संस्कृति का एक अंग बन जाती है। जहां तक भारत का संबंध है उसकी तो बड़ी-बड़ी उपलब्धियां रही हैं और उसने धर्म, कला और साहित्य के क्षेत्रों में विश्व मानवता की बड़ी सेवाएं की हैं। साथ ही यह भी समझ लेना आवश्यक है कि सांस्कृतिक धरातल पर मानव संबंध वैज्ञानिक प्रगति की प्रतिच्छाया मात्र नहीं होते। यह स्वयं मानव विज्ञान बताता है। भारत की पुरातन संस्कृति इस सत्य की साक्षी है।

विदेशी आक्रांत मिटाने में असफल रहे
यह सही है कि हमारा भारत पिछले 13 - 14 सौ वर्ष से लगातार विदेशी आक्रमणों से आक्रांत रहा और उसका इस काल का इतिहास एक प्रकार से आक्रमणों और आंतरिक उथल-पुथल का इतिहास हो गया है। इससे इस दौर में हमारे यहां आत्मरक्षा की भावना बढ़ी और परिणामतः संस्कृति में संकोच भाव आया, जिसका प्रभाव हमारी राजनीति, अर्थनीति, समाज नीति और साहित्य पर भी बुरा पड़ा। किंतु इस कालावधि में भी ऐसे ऐसे नरपुंगव आए जिन्होंने  जड़ता को उखाड़ फेंकने के लिए बड़े-बड़े सांस्कृतिक आंदोलन खड़े किए। इसीलिए यहां जड़ता में भी गतिशीलता की लहर चलती रही है और यही कारण है कि बड़े से बड़े संकट काल में भी भारतीय जनता की सिंहवृत्ति कायम रही। हमारी भारतीय जनता पर विदेशी आक्रांताओं ने जो जो अत्याचार किए वे संभवत: विश्व के किसी अन्य देश में नहीं किए गए होंगे। दारुण से दारुण पीड़ा भारतीय जनता ने झेली। उसमें कभी-कभी निराशा की अंधियारी भी छाई लेकिन अपनी संस्कृति की मूल भावना से बंधी होने के कारण वह पीड़ा से भी क्रीडा करती रही, अंधेरे में भी प्रकाश देखती रही हार में भी जीत की मानसिकता को कायम रखे रही।

संस्कृति की यह मूल भावना क्या है? कौन सी ऐसी वृत्ति है जो भारत की बहुसंनी संस्कृति में एकात्मकता स्थापित करके जीवित रखे रही? हमारी संस्कृति में ऐसी कौन सी शक्ति थी जिसने अरब, तुर्क, तातार, मुगल और अन्य आक्रमणकारियों को अपने रंग में रंग कर हिंदुस्तानी बना लिया था? यद्यपि अंग्रेज इस शक्ति के समक्ष नहीं झुका और उसने अपने बर्बर प्रहारों से पूरे तरीके से भारत को धराशाई करने की कोशिश की, तथापि भारत के सांस्कृतिक स्वरूप को नष्ट करने में वह समर्थ नहीं हो सका। इतना ही नहीं हार झ़ख मार कर हमारी संस्कृति के मूल स्रोतों के निकट जिज्ञासु की तरह बैठा और अपनी भाव धाराओं को उसके ज्ञान बल से सोखने लगा।

मार्क्स द्वारा प्रशंसा
फिर यही प्रश्न आता है कि इस महान संस्कृति का कौन सा तत्व भारतीय जनता को महान और वीर बनाए हुए था? एक शब्द में हम कह सकते हैं कि यह तत्व है; हमारी जनता का चैतन्य से विश्वास। इसी विश्वास में वह अमर है। इसी चैतन्य से उसे बुद्धि की तीक्ष्णता प्राप्त हुई है और इसी से नई से नई भावना ग्रहण करने की क्षमता। मार्क्स का कहना है स्वयं ब्रिटिश अधिकारियों की राय के अनुसार हिंदुओं में नहीं ढंग के काम सीखने और मशीनों का आवश्यक ज्ञान प्राप्त करने की विशिष्ट योग्यता है। इस बात का प्रचुर प्रमाण कलकत्ते के सिक्के बनाने के कारखाने में काम करने वाले उन देशी इंजीनियरों की क्षमता तथा कौशल में मिलता है, जो  वर्षों  से भाप से चलने वाली मशीनों पर वहां काम कर रहे हैं। इसका प्रमाण हरिद्वार के कोयले वाले इलाकों में भाप से चलने वाले इंजनों से संबंधित भारतीयों में मिलता है और भी ऐसे उदाहरण दिए जा सकते हैं।

मिस्टर कैंपबेल पर ईस्ट इंडिया कंपनी के पूर्वाग्रहों का बड़ा प्रभाव है पर वे  स्वयं भी इस बात को कहने के लिए मजबूर हैं कि: 'भारतीय जनता के बहुत संख्या समुदाय में जबरदस्त औद्योगिक क्षमता मौजूद है' पूंजी जमा करने की तुममें अच्छी योग्यता है गणित संबंधी उसके मस्तिष्क की योग्यताबद्ध भावना  है तथा हिसाब किताब के विषय और विज्ञान में वह बहुत सुगमता से दक्षता प्राप्त कर लेती है। वह कहते हैं, उनकी बुद्धि बहुत तीक्ष्ण होती है।

चैतन्य में (सद के प्रति आग्रह रखते हुए) विचार और कर्म की एकात्मकता आस्था होने से ही जनता ने अंग्रेजी शासनकाल में भी अंधकार में से प्रकाश प्राप्त कर लिया। इंग्लैंड का भारत पर शासन निकृष्टतम उद्देश्यों को लेकर हुआ था किंतु भारतीय जनता ने अपनी चैतन्य आस्था के कारण सामाजिक क्रांति करके अपने को नए वैज्ञानिक युग के अनुकूल ढाल लिया। अंग्रेजों ने उसकी यह कुशाग्रता देखकर उसे भ्रष्ट शिक्षा पद्धति दी, उसे कलंकमय मानसिकता की ओर प्रेरित किया, किंतु भारतीय जनता के सपूत विश्व जीवन के सभी क्षेत्रों में योगदान करने योग्य बन गए।

संघर्ष की प्रेरणा
अंग्रेजी शासन के जाने पर यद्यपि देश विभाजन की घोर विडंबना भारत धरा पर आई और उसके बाद उसे निरंतर दुख पर दुख उठाने पड़े, यहां तक कि  अपने उत्तरी सीमांतों पर विदेशी आक्रमण का झंझावात भी से सहना पड़ा, लेकिन उसका चैतन्य में इतना विश्वास है कि आज भी आगे बढ़ रही है। कुंठा और अवसाद के विष  को नीलकंठ के सामने अपने कंठ में रख लिया है और स्थिर चित्त से चित्तमय पथ की ओर चली ही जा रही है।

इसका तात्पर्य है कि हमारी संस्कृति की मूल धारा चैतन्यमय होकर प्रवाहित होती रही है। उसने जनमानस को अपनी प्रकाश किरणों से ज्वलंत रखा है। दोष उन लोगों का रहा जो धन और सजा की लोलुपता से पथभ्रष्ट हो गए, यानी कि दोष संस्कृति का न हो कर शोषक और शासक का रहा। आज भी यही दोष है। हमारी समृद्ध सांस्कृतिक परंपराएं दूषण के विरुद्ध संघर्षरत होने की प्रेरणा दे रही हैं। इस दूषण में पुराने और नए दोनों दोष सम्मिलित हैं। भारत की चैतन्यवृत्ति अर्थात संस्कृति की अग्नि इस दूषण की राख - राख कर देना चाहती है। वह हर क्षण तेज को उद्दीप्त कर रही है, उस तेज को जो पापपंक और रूढ़ियों के कूड़े करकट को जला डालता है और पुष्पमय भावनाओं को तपा-तपाकर कुंदन बना देता है। इसका प्रमाण है कि हमारे समाज में सांस्कृतिक आर्थिक और राजनीतिक संघर्ष लगातार चलता रहता है।
यह सही है कि हमारे इन संघर्षों में दिशा हीनता भी आ जाती है, लेकिन यह भी तो सही है कि हमारे समाज के धनपति और सत्ताधिकारी  माया की तमिस्त्रा फैलाते रहते हैं। अंधेरे और उजाले की लड़ाई में अंधियारे की अधिकाई से अनेक बार रास्ता सूझना बंद हो जाता है, लेकिन प्रकाश सदा परास्त नहीं रहता। हमारा देश ज्योति, सद,अमृत अथवा चैतन्य से बंधा है, उसके पास वह श्रेष्ठ परंपरा है जिसके राम अविभक्त संपत्ति के सिद्धांत पुरस्कर्त हैं, यानी कि उनकी परंपरा मनुष्य के द्वारा मनुष्य के शोषण के विरुद्ध होने से आज के युग सत्य में समाहित हो जाती है।
                                                                                                                                              -युगवार्ता


प्रस्तुति: यशवन्त माथुर 
मूल संकलनकर्ता : श्री विजय राज बली माथुर 
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