कभी धूप
कभी छाँव के
बदलते रंगों में
कोशिश करता हूँ
एक रंग
अपना पाने की
और उसी में घुलकर
उस जैसा ही हो जाने की
दुनियावी मायाजाल को समझकर
धारा के साथ ही
बह जाने की।
लेकिन मेरे भीतर बैठा
मेरा अपना सच
लाख चाहने के बाद भी
डिगा नहीं पाता
कतरे-कतरे में घुली
रची और बसी
मौन
विद्रोही प्रवृत्ति को
जो अपने चरम के पार
मुखर होते ही
बेरंग कर देती है
बहुत से रंगों को।
और इसलिए
सिर्फ इसीलिए
जीवन के
किसी एक क्षण भर को
जी लेना चाहता हूँ
बसंत बन कर
ताकि रहे न कोई अफसोस
ताउम्र
रंगहीन होने का।
24022022