(सुनने के लिए कृपया पधारें: https://youtu.be/p9QVmeMM4ek)
बरसात!
अब नहीं रही
पहले जैसी
बचपन जैसी
अल्हड़-
बेबाक-
खुशगवार
देहरी पर
जिसका
पहला कदम पड़ते ही
तन के साथ
मन भी झूम उठता था
बादलों की गरज
और रिमझिम के साथ
कहा और लिखा जाने वाला
एक-एक शब्द
नई परवाज़ के साथ
रचा करता था
इतिहास के
नए पन्ने।
बरसात!
अब नहीं लाती
खुशियां
लाती है तो सिर्फ
गंदी-बदबूदार नफरत
जिसे बहने का रास्ता
अगर मिल जाता
तो मंजिल तक
जाने वाला रास्ता
नहीं होता
ऊबड़-खाबड़
और गड्ढे दार।
ठीक कहा आपने।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शनिवार (02-07-2022) को चर्चा मंच "उतर गया है ताज" (चर्चा अंक-4478) पर भी होगी!
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
चर्चा के लिए मैटर सलेक्ट होने में कठिनाई आती है।
ReplyDeleteआप स्वयं भी चर्चाकार रहे हैं।
कृपया ध्यान दें आदरणीय।
अब दिक्कत नहीं आएगी सर! चर्चा में स्थान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद!
Deleteबरसात तो अब भी पहले की सी है हमारे मनों का उत्साह ही कहीं खो गया सा लगता है
ReplyDeleteसही कहा दूषित पर्यावरण में बारिश की बूदें भी दूषित हो रही हैं और बहुत बारिश हो जाने पर साफ हो जाती हैं तो सड़कों पर जल जमाव और गन्दगी बदबूदार होती ही है...
ReplyDeleteबहुत सटीक एवं सार्थक सृजन।
सही कहा आपने बरसात अब पहले जैसी नहीं रही।
ReplyDeleteउमंग का यों ओझल होना, जीवन ठगा सा लगता है। अब तो समझ के वृक्ष फल फूल रहें हैं।
बहुत ही सुंदर सृजन।
सादर
बहुत सुंदर
ReplyDeleteसुंदर सृजन!
ReplyDeleteबरसात का आना एक एहसास है जो परिस्थितियों के हिसाब से हमें प्रभावित करती है। हाँ आज की प्रदूषित बेला में मिट्टी की सौंधी सौगात से ज्यादा बदबू कीचड़ का श्राप बन जाती है।
सुंदर।