क्या कोई
समझ पाएगा
उस मासूम मन का
अंतर्द्वंद्व
जिसका आवरण
बंटा हुआ है
अनंत मानव निर्मित
व्यवहारों में।
क्या कोई
समझा पाएगा
उस मासूम
कोमल चेहरे का दोष
जिस पर पड़ते
चांटों की आवाज़ से
गूंजते
सामाजिक माध्यमों ने ही
जन्म दिया है
इस वैमनस्यता को।
नहीं
कोई नहीं समझेगा
उसका दर्द
कोई नहीं समझाएगा
परिणाम
इस भयावहता के
क्योंकि
हमारे ज्ञान
हमारी संस्कृति से
ऊपर हो चले
पूर्वाग्रहों के बादल
छंटेंगे
अवश्यंभावी
परिवर्तन और
नई क्रांति के
बाद ही।
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26082023