जिसे हम
कभी 'छोटू' कहते हैं
कभी 'रामू-श्यामू' कहते हैं
होता है धुरी
उस एक चाक की
जो घूमती है
उसकी छोटी सी कमाई के
इर्द-गिर्द।
हम
कभी नहीं सोचते
उस छोटू की
उम्र के बारे में
न उठाते हैं कभी जहमत
उससे बात करने की
क्योंकि हमारी सोच
संकुचित ही रहती है
एक छोटे से कुल्हड़
या प्याले में भरी
गर्मागर्म चाय की
चुस्कियों के दायरे में
जिसके बाहर
अगर कभी हमने सोचा
तो उतरते देर न लगेगी
हमारी आंखों के सामने टंगा
सभ्यता का
सफेद पर्दा।
✓यशवन्त माथुर©
27 12 2024
-एक निवेदन-
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