29 November 2024

परछाई और मैं

अकेले चलते-चलते
अपनी परछाई से 
बातें करते-करते
अनंत युगों से
करता आ रहा हूं पार
एक समय चक्र से 
दूसरे समय चक्र को
लेकिन पा नहीं पा रहा
उस अंतिम कोर को
जिस पर समाप्त होती हो सीमा
चलते जाने की।

यूं तो मुझे पता है
कि परछाई का साथ होना
मेरा प्रारब्ध है
लेकिन फिर भी
डरता हूं-
कि 
मेरी महत्वाकांक्षा ने
अगर कर लिया अतिक्रमण
मेरी कर्मशीलता का
तो क्या होगा?
क्या मैं चल पाऊंगा
ऐसे ही निर्बाध
या कि गतिअवरोधक
आ आ कर देते जाएंगे
कुछ सबक
जिनको 
दिल और दिमाग पर 
मैं रोज़ ढोता जाऊंगा
और क्या मिल पाऊंगा
क्षितिज से?
और क्या
समय की असीमता को छूकर
मुझे हो सकेगा एहसास
उस निर्वात का
जिसके लिए 
करता आ रहा हूं तपस्या
युगान्तर से
युगों के चरम को पाने की।

✓ यशवन्त माथुर ©
29112024

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4 comments:

  1. बहुत सुंदर रचना

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  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 2 दिसंबर को साझा की गयी है....... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. "करता आ रहा हूं तपस्यायुगान्तर सेयुगों के चरम को पाने की।"

    यशवंत भाई, यह तपस्या ही जीवन की रीत है! बहुत दिनों बाद पढ़ने का मौका मिला! आनंद मिला! आशा है आप सकुशल, सानंद हैं!

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